हे केशव मेरे 100 पुत्र मारे गए और मैं अंधा क्यों हुआ
हे केशव, मेरे 100 पुत्र मारे गए और मैं अंधा क्यों हुआ?
मेरे पूर्व जन्म का क्या पाप है?
धृतराष्ट्र अंधे थे, लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि गंधारी
को 100 संतानों को जन्म देने का आशीर्वाद है, तो उनका अंधेपन का दुख मिट गया था। धृतराष्ट्र
के 100 पुत्र और एक पुत्री हुई। कुरुक्षेत्र में उनके सभी 100 पुत्र मारे गए। एक पिता
के लिए इससे अधिक दुखद बात क्या हो सकती है कि उसे अपने 100 पुत्रों का शोक मनाना पड़े।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का जो संदेश दिया था, उसे अर्जुन
के अतिरिक्त संजय और धृतराष्ट्र ने भी सुना था। उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि
सब कुछ पूर्व निर्धारित है और सबको अपने पूर्व के कर्मों का दंड भोगना होगा।
धृतराष्ट्र को वह बात स्मरण थी। दुर्योधन और दु:शासन मुख्य
रूप से पांडवों और द्रौपदी के दोषी थे। उनके मारे जाने को तो धृतराष्ट्र कर्मफल से
जोड़ रहे थे, पर शेष पुत्रों की तो कोई भूमिका नहीं थी। वे क्यों मारे गए — यह प्रश्न
धृतराष्ट्र को बहुत परेशान करता था।
धृतराष्ट्र ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा — "मैं अंधा
पैदा हुआ, मेरे 100 पुत्र मारे गए, भगवन्! मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया है जिसका यह दंड
मुझे मिल रहा है? आपने अर्जुन से कहा था कि जो हो रहा है वह कर्मों का दंड है। मेरे
अंधे होने और 100 पुत्रों के मारे जाने के पीछे क्या कारण है? कृपा करके मुझे यह बताएं।
अपने पुत्रों को खोने की पीड़ा से उबरने में यह जानना सहायक होगा।"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा — "महाराज धृतराष्ट्र, आपने
उचित ही सुना था — कर्मों का दंड भोगना ही पड़ता है, उससे कोई बच नहीं सकता। राजा और
सारथ्यवाला समर्थ मान बनाते हैं, तो उनसे ज्यादा जिम्मेदारी की अपेक्षा रहती है। कुछ
पाने के लिए कुछ तो देना ही पड़ता है। महाराज, आप इस जन्म में भी राजा हैं और पूर्व
जन्म में भी राजा थे। पर आपने कई पापकर्म किए हैं।"
धृतराष्ट्र अधीर होकर बोले — "हे केशव! मैंने इस जन्म
में जो किया, वह मेरे सामने है। एक राजा और बड़े परिवार के मुखिया के रूप में मैंने
वही किया जो मुझे उचित लगा। अब मैं पूर्व जन्म का रहस्य जानना चाहता हूं। कृपा करके
बताइए कि ऐसा कौन-सा पाप था जिसके कारण मैं अंधा हुआ और 100 पुत्रों को खो बैठा?"
भगवान श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र को उनके पूर्व जन्म की याद
दिलानी शुरू की और उन्हें उस जन्म में ले गए।
भगवान श्रीकृष्ण बोले — "महाराज धृतराष्ट्र, पिछले जन्म
में भी आप एक राजा थे। आपके राज्य में एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। ब्राह्मण के पास
हंसों का एक जोड़ा था, जिसके चार बच्चे थे। ब्राह्मण को उन हंसों से अपने संतान के
समान लगाव था।
एक बार ब्राह्मण तीर्थ यात्रा पर जाना चाहता था, लेकिन हंसों
की चिंता में वह नहीं जा पा रहा था। उसने अपनी चिंता एक साधु को बताई। साधु ने कहा
— ‘तीर्थ में हंसों को बाधक बताकर उनके अगले जन्म को क्यों बिगाड़ते हो? राजा प्रजापालक
होता है, तुम और तुम्हारे हंस दोनों ही उसकी प्रजा हो। तुम हंसों को राजा के संरक्षण
में रखकर निश्चिंत होकर यात्रा पर जाओ।’
ब्राह्मण को यह बात अच्छी लगी। वह आपके पास आया और अपनी परेशानी
सुनाई। आपने ब्राह्मण की तीर्थ यात्रा तक हंसों की रक्षा का दायित्व स्वीकार किया।
ब्राह्मण हंस और उसके बच्चों को आपके पास छोड़कर तीर्थ यात्रा पर चला गया।
हंस आपके महल के तालाब में रहने लगे। एक दिन आपको मांस खाने
की तीव्र इच्छा हुई। आप महल के बाग में घूम रहे थे, तभी आपकी नज़र हंसों पर पड़ी। आपने
सोचा — ‘सभी जीवों का मांस खा चुका हूं, पर हंस का नहीं। इसका स्वाद कैसा होता होगा?’
यह इच्छा धीरे-धीरे बढ़ी और आप अपने आप को रोक नहीं पाए।
आपने हंस के दो बच्चों को भूनकर खा लिया। उसका स्वाद आपको अच्छा लगा। बाद में जब हंस
के 100 बच्चे हुए, तो आप सबको खाते चले गए। अंततः हंस संतानहीन होकर दुःख में मर गया।
कई वर्ष बाद जब ब्राह्मण तीर्थ से लौटा, तो उसने हंसों के
बारे में पूछा। लेकिन हंस तो आपके लालच की भेंट चढ़ चुके थे। अपने अपराध को छिपाने
के लिए आपने ब्राह्मण से झूठ कहा कि हंस बीमार होकर मर गए।
ब्राह्मण ने आप पर विश्वास किया और दुखी होकर चला गया। महाराज
धृतराष्ट्र, आपने हंस के बच्चों को खाकर और फिर झूठ बोलकर एक साथ कई अपराध किए। आपने
उस ब्राह्मण के साथ विश्वासघात किया जिसने आप पर भरोसा किया था।
आपने अपने राज्यधर्म का पालन नहीं किया और लालच में पड़कर
प्रजा की धरोहर को नष्ट किया। आपने उन जीवों की हत्या की जो आपके आश्रय में आए थे।
यही सबसे बड़ा पाप था।
इस घोर पाप के कारण आपको यह दंड मिला — जैसे आपने हंस के
100 बच्चों को लालच में मार दिया, वैसे ही आपके 100 पुत्र लालच में पड़कर मारे गए।
जिनसे आपने झूठ बोला, उनका विश्वास तोड़ा, उसी कारण आप जन्म-जन्मांतर में अंधे और असफल
हुए।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा — "सबसे बड़ा छल होता है विश्वासघात।
आप उसी का फल भोग रहे हैं।"
