भगवान शिव का सबसे पहला शिवलिंग का रहस्य

Deepak Sir

भगवान शिव का सबसे पहला शिवलिंग का रहस्य

भगवान शिव का सबसे पहला शिवलिंग का रहस्य

भगवान शिव का सबसे पहला शिवलिंग का रहस्य अत्यंत गूढ़ और चमत्कारिक है। कहा जाता है कि जहां भगवान शिव का लिंग गिरा, वहीं से शिवलिंग की पूजा का प्रारंभ हुआ। मित्रों, हिंदू धर्म में लिंग से जुड़ी अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं जो आज भी हमें आश्चर्यचकित करती हैं। इन्हीं में से एक पौराणिक कथा में बताया गया है कि भगवान शिव का लिंग कटकर पृथ्वी पर गिरा था, और तब से ही शिवलिंग तथा योनि की पूजा प्रारंभ हुई। माना जाता है कि इसी लिंग रूप में भगवान शिव अपने भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।

शिव पुराण और लिंग पुराण में भगवान शिव के लिंग रूप की पूजा के अनेक उल्लेख मिलते हैं। इन पुराणों में यह भी वर्णित है कि एक श्राप के कारण भगवान शिव का लिंग कटकर धरती पर गिर गया था। उसी समय से भगवान शिव को लिंग रूप में पूजने की परंपरा प्रारंभ हुई। कहा जाता है कि शिव का लिंग जहां गिरा, वह स्थान जागेश्वर धाम कहलाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव जागेश्वर के निकट दंडेश्वर नामक स्थान पर तपस्या कर रहे थे। इस बीच सप्त ऋषियों की पत्नियां वहां पहुंचीं और शिव के दिगंबर रूप को देखकर मोहित हो गईं। जब सप्त ऋषि अपनी पत्नियों की खोज में वहां आए तो उन्होंने भगवान शिव को देखकर बिना समझे क्रोधित होकर उन्हें लिंग पतन का श्राप दे दिया। इससे समस्त ब्रह्मांड में उथल-पुथल मच गई।

बाद में देवताओं ने किसी प्रकार भगवान शिव को प्रसन्न किया, और जागेश्वर में उनके लिंग की स्थापना की गई। ऐसा माना जाता है कि तभी से शिवलिंग की पूजा प्रारंभ हुई।

दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार, दक्ष प्रजापति के यज्ञ में माता सती के आत्मदाह के पश्चात दुखी भगवान शिव ने यज्ञ की भस्म अपने शरीर पर लपेटकर दारुक वन में गहन तप किया। यह स्थान बाद में उनकी तपस्थली के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी वन में सप्त ऋषि अपनी पत्नियों सहित कुटिया बनाकर तपस्या करते थे।

एक दिन भगवान शिव दिगंबर अवस्था में ध्यान में लीन थे। उसी दौरान सप्त ऋषियों की पत्नियां फल, कंदमूल और लकड़ी एकत्र करने आईं। उन्होंने भगवान शिव के दिगंबर रूप को देखा और उनके तेजस्वी शरीर पर मोहित हो गईं। भगवान शिव अपनी समाधि में लीन रहे और उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। पत्नी के देर से लौटने पर जब ऋषि उन्हें ढूंढते हुए वहां पहुंचे, तो उन्होंने अपनी पत्नियों को मूर्छित अवस्था में और शिव को ध्यानस्थ पाया।

ऋषियों को भ्रम हुआ कि शिव ने उनकी पत्नियों के साथ अनुचित व्यवहार किया है। उन्होंने क्रोधित होकर भगवान शिव को श्राप दे दिया कि उनका लिंग उनके शरीर से अलग होकर गिर जाए। शिव नेत्र खोलते हुए बोले कि “आपने अज्ञानवश मुझे गलत समझा, पर मैं आपके श्राप का विरोध नहीं करूंगा।” तुरंत उनका लिंग पृथ्वी पर गिर गया और उसी क्षण समस्त सृष्टि में भय फैल गया।

ब्रह्मदेव ने स्थिति को संभालने के लिए ऋषियों को देवी पार्वती की उपासना करने का आदेश दिया, क्योंकि केवल पार्वती ही शिव के इस तेज को धारण कर सकती थीं। ऋषियों ने देवी की पूजा की, और पार्वती ने योनि रूप में प्रकट होकर शिव के लिंग को धारण किया। उसी क्षण शिवलिंग की स्थापना संपन्न हुई। तभी से शिवलिंग की पूजा प्रारंभ मानी जाती है।

कहा जाता है कि सबसे पहले शिवलिंग का पूजन जागेश्वर धाम से आरंभ हुआ। मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले यात्री पहले इस धाम की पूजा-अर्चना करते हैं। यहां लगभग 200 से अधिक मंदिर हैं। यह धाम अल्मोड़ा से 29 किलोमीटर दूर देवदार के घने जंगलों के बीच स्थित है। इसकी महिमा का उल्लेख स्कंद पुराण, लिंग पुराण, और मार्कंडेय पुराण में भी मिलता है। यह स्थान उत्तर भारत का एक प्रमुख शिव तीर्थ है, जहां भगवान शिव जागृत रूप में विराजमान हैं।

यह भी मान्यता है कि यहां आने वाले श्रद्धालु मंदिर परिसर के एक प्राचीन देवदार वृक्ष में भगवान शिव और माता पार्वती के युगल रूप का दर्शन करते हैं। यह वृक्ष नीचे से एक और ऊपर से दो शाखाओं वाला है, जिसे अत्यंत पवित्र और चमत्कारी माना जाता है।

भगवान शिव ही ऐसे देवता हैं जिन्होंने सदा मृत्यु पर विजय पाई है, इसी कारण उन्हें मृत्युंजय कहा जाता है। जागेश्वर धाम के मंदिर समूह में सबसे विशाल और प्रसिद्ध मंदिर महामृत्युंजय महादेव का है। इस पूरे परिसर में लगभग 250 छोटे-बड़े मंदिर हैं, जिनमें से 124 अत्यंत प्राचीन हैं। यहां के प्रमुख मंदिरों में भैरव, माता पार्वती, केदारनाथ, हनुमान, मृत्युंजय महादेव, माता दुर्गा, जगन्नाथ, पुष्टि देवी और कुबेर के मंदिर शामिल हैं।

यह माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग, काशी, हरिद्वार या अन्य प्रमुख तीर्थ न जा सके, तो केवल जागेश्वर धाम के दर्शन करने मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। स्कंद पुराण और लिंग पुराण में इस धाम के पूजन को विशेष फलदायक बताया गया है। देव, मनुष्य, और मुनि—सभी यहां भगवान भोलेनाथ की आराधना करने आते हैं। इसी कारण यह स्थान “जागेश्वर” अर्थात “जागृत ईश्वर” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

Post a Comment